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पुन॑स्त्वादि॒त्या रु॒द्रा वस॑वः॒ समि॑न्धतां॒ पुन॑र्ब्र॒ह्माणो॑ वसुनीथ य॒ज्ञैः। घृ॒तेन॒ त्वं त॒न्वं᳖ वर्धयस्व स॒त्याः स॑न्तु॒ यज॑मानस्य॒ कामाः॑ ॥४४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पुन॒रिति॒ पुनः॑। त्वा॒। आ॒दि॒त्याः। रु॒द्राः। वस॑वः। सम्। इ॒न्ध॒ता॒म्। पुनः॑। ब्र॒ह्माणः॑। व॒सु॒नी॒थेति॑ वसुऽनीथ। य॒ज्ञैः। घृ॒तेन॑। त्वम्। त॒न्व᳖म्। व॒र्ध॒य॒स्व॒। स॒त्याः। स॒न्तु। यज॑मानस्य। कामाः॑ ॥४४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:44


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कैसे मनुष्यों के संकल्प सिद्ध होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वसुनीथ) वेदादि शास्त्रों के बोधरूप और सुवर्णादि धन प्राप्त करानेवाले (त्वम्) आप (यज्ञैः) पढ़ने-पढ़ाने आदि क्रियारूप यज्ञों और (घृतेन) अच्छे संस्कार किये हुए घी आदि वा जल से (तन्वम्) शरीर को नित्य (वर्धयस्व) बढ़ाइये। (पुनः) पढ़ने-पढ़ाने के पीछे (त्वा) आप को (आदित्याः) पूर्ण विद्या के बल से युक्त (रुद्राः) मध्यस्थ विद्वान् और (वसवः) प्रथम विद्वान् लोग (ब्रह्माणः) चार वेदों को पढ़ के ब्रह्मा की पदवी को प्राप्त हुए विद्वान् (समिन्धताम्) सम्यक् प्रकाशित करें। इस प्रकार के अनुष्ठान से (यजमानस्य) यज्ञ, सत्सङ्ग और विद्वानों का सत्कार करनेवाले पुरुष की (कामाः) कामना (सत्याः) सत्य (सन्तु) होवें ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य प्रयत्न के साथ सब विद्याओं को पढ़ के और पढ़ा के बारंबार सत्सङ्ग करते हैं, कुपथ्य और विषय के त्याग से शरीर तथा आत्मा के आरोग्य बढ़ा के नित्य पुरुषार्थ का अनुष्ठान करते हैं, उन्ही के संकल्प सत्य होते हैं, दूसरों के नहीं ॥४४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कीदृशा मनुष्याः सत्यसङ्कल्पा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(पुनः) अध्ययनाध्यापनाभ्यां पश्चात् (त्वा) त्वाम् (आदित्याः) पूर्णविद्याबलयुक्ताः (रुद्राः) मध्यस्थाः (वसवः) प्रथमे च विद्वांसः (सम्) (इन्धताम्) प्रकाशयन्तु (पुनः) (ब्रह्माणः) चतुर्वेदाध्ययनेन ब्रह्मा इति संज्ञां प्राप्ताः (वसुनीथ) वेदादिशास्त्रबोधाख्यं सुवर्णादिधनं न च यो नयति तत्सम्बुद्धौ (यज्ञैः) अध्ययनाध्यापनादि-क्रियामयैः (घृतेन) सुसंस्कृतेनाज्यादिना जलेन वा (त्वम्) अध्यापकः श्रोता वा (तन्वम्) शरीरम् (वर्धयस्व) (सत्याः) सत्सु धर्मेषु साधवः (सन्तु) भवन्तु (यजमानस्य) यष्टुं सङ्गन्तुं विदुषः पूजितुं च शीलं यस्य तस्य (कामाः) अभिलाषाः। [अयं मन्त्रः शत०६.६.४.१२ व्याख्यातः] ॥४४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वसुनीथ त्वं यज्ञैर्घृतेन च तन्वं शरीरं नित्यं वर्धयस्व, पुनस्त्वा त्वामादित्या रुद्रा वसवो ब्रह्माणः समिन्धताम्। एवमनुष्ठानाद् यजमानस्य कामाः सत्याः सन्तु ॥४४ ॥
भावार्थभाषाः - ये प्रयत्नेन सर्वा विद्या अधीत्याध्याप्य च पुनः पुनः सत्सङ्गं कुर्वन्ति, कुपथ्यविषयत्यागेन शरीरात्मनोरारोग्यं वर्धयित्वा नित्यं पुरुषार्थमनुतिष्ठन्ति, तेषामेव संकल्पाः सत्या भवन्ति, नेतरेषाम् ॥४४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे प्रयत्नपूर्वक सर्व विद्यांचे अध्ययन व अध्यापन करून वारंवार सत्संग करतात. कुपथ्य व विषय यांचा त्याग करून शरीर व आत्मा यांचे रोग दूर करून सदैव पुरुषार्थ करतात, त्यांचेच संकल्प खरे होतात, इतरांचे होत नाहीत.